लोक देवता से तात्पर्य उन महापुरुषों से है जिन्होंने अपने वीरोचित कार्य तथा दृढ आत्मबल द्वारा समाज में सांस्कृतियों मूल्यों की स्थापना, धर्म की रक्षा एवं जन हितार्थ हेतु सर्वस्व न्यौछावर कर दिया तथा ये अपनी अलौकिक शक्तियों एवं लोक मंगल कार्य हेतु लोक आस्था के प्रतीक हो गये। इन्हें जनसामान्य का दुःखहूत्र्त्ता व मंगलकर्त्ता के रूप में पूजा जाने लगा। इनके धान देवल, देवरे या चबूतरे जनमानस में आस्था के केन्द्र के रूप में विद्यमान हो गये। राजस्थान के सभी लोक देवता छुआछूत, जाति-पाँति के विरोधी व गौ रक्षक रहे है। एवं असाध्य रोगों के चिकित्सक रहे है।
1. रामदेवजी :-रामदेवजी लोकदेवताओं में एक प्रमुख अवतारी पुरूष है। इनका जन्म तंवर वंश के अजमल जी व मैणा दे के घर हुआ। समाज सुधारक के रूप में रामदेवजी ने मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा व जाति व्यवस्था का घोर विरोध किया। गुरू की महत्ता पर जोर देते हुए इन्होंने कर्मों की शुद्धता पर चल दिया। उनके अनुसार कर्म से ही, भाग्य का निर्धारण होता है। वे सांप्रदायिक सौहार्द के प्रेरक थे। मुस्लिम समाज इन्हें ‘राम सा पीर’ के रूप में मानते हैं। राम देव जी का प्रमुख स्थान रामदेवरा (रूणेचा) है, जहां भाद्रपद माह में विशाल मेला भरता है।
लोकदेवता गोगाजी चौहान :- पंच पीरों में सर्वाधिक प्रमुख स्थान गोगाजी चैहान का है। इनका जन्म विक्रम संवत् 1003 में, ददरेवा (चूरू) में हुआ। इनके पिता का नाम – जेवरजी चौहान तथा माता का नाम बाछल दे, एवं पत्नी का नाम राजकुमारी केलमदे कोलुमण्ड,फलौदी, जोधपुर ) था। इनके गुरु का नाम योगी गोरखनाथ था। केलमदे की मृत्यु साँप के काटने से हुई जिससे क्रोधित होकर गोगाजी ने अग्नि अनुष्ठान किया। जिसमें कई साँप जलकर भस्म हो गये फिर साँपों के मुखिया ने आकर उनके अनुष्ठान को रोककर केमलदे को जीवित किया। तभी से गोगाजी साँपों के देवता के रूप में पूजे जाते हैं। गुजराती पुस्तक श्रावक वृतादि- अतिचार, रणकपुर प्रशस्ति व दयालदास री ख्यात के अनुसार इन्होंने अपने चचेरे भाई अर्जुन सुर्जन के साथ भूमि विवाद पर युद्ध करते हुए वीरगति पाई थी। युद्ध करते समय गोगाजी का सिर ददरेवा चूरू में गिरा इसलिए इसे शीर्षमेड़ी तथा धड़ नोहर हनुमानगढ़ में गिरा इसलिए इसे धड़मेड़ी / धुरमेड़ी / गोगामेड़ी भी कहते हैं। बिना सिर के ही गोगाजी को युद्ध करते हुए देखकर महमूद गजनवी ने गोगाजी को जाहर पीर ( प्रत्यक्ष पीर ) कहा। उत्तर प्रदेश में गोगाजी को जहर उतारने के कारण जहर पीर / जाहर पीर भी कहते हैं।
गोगामेड़ी का निर्माण फिरोजशाह तुगलक ने करवाया। गोगामेड़ी के मुख्य द्वार पर बिस्मिल्लाह लिखा है तथा इसकी आकृति मस्जिदनुमा है। गोगामेड़ी का वर्तमान स्वरूप बीकानेर के महाराजा गंगासिंह की देन है। प्रतिवर्ष गोगानवमी (भाद्रपद कृष्णा नवमी) को गोगाजी की याद में गोगामेड़ी, हनुमानगढ़ में भव्य मेला भरता है।
गोगाजी की आराधना में श्रद्धालु सांकल नृत्य करते हैं। गोगामेड़ी में एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी है। मुस्लिम पुजारी को चायल कहा जाता है।गोगाजी का प्रतीक चिन्ह सर्प हैं। खेजड़ी के वृक्ष के नीचे गोगाजी का निवास स्थान माना जाता है।
‘गोगाजी की ओल्ड़ी’ नाम से प्रसिद्ध गोगाजी का अन्य पूजा स्थल किलोरियों की ढाणी साँचौर (जालौर) में स्थित है। मान्यता है कि इसकी स्थापना पाटम के दो भाइयों द्वारा की गई थी। केरिया गांव के कुम्हार राजाराम ने यहाँ मंदिर का निर्माण करवाया था। गोगाजी की पूजा घरों में मिट्टी का घोड़ा बनाकर अश्वारोही योद्धा के रुप में की जाती है। गोगाजी से सम्बन्धित वाद्ययंत्र डेरु है। गोगाजी के भक्त नृत्य करते समय नगाड़ा या ढोल वाद्य यंत्र का प्रयोग करते है जिसे माठ कहते है।
किसान वर्षा के बाद खेत जोतने से पहले हल व बैल को गोगाजी के नाम की राखी गोगाराखड़ी बांधते हैं। इसमें नौ गांठे होती है। इनकी सवारी नीली घोड़ी है। जिसे गोगा बाप्पा के नाम से भी जाना जाता है। कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार गोगाजी ने अपने 47 पुत्रों एवं 60 भतीजों के साथ सतलज या चिनाब नदी को पारकर महमूद गजनवी से युद्ध किया और अपने पूरे परिवार की आहूति दे दी। गोगाजी ने 11 बार मुसलमानों से युद्ध किया था। कायम सिंह गोगाजी के 17वीं पीढ़ी का शासक, जिसे बलपूर्वक मुसलमान बना दिया गया और इनके वंशज कायमखानी मुसलमान कहलाए। गोगामेड़ी के चारों तरफ के जंगल को गोगाजी की पणी, रोपण एवं जोड़ के नाम से जाना जाता।

तेजाजी- नागवंशीय जाट तेजाजी का जन्म खड़नाल (नागौर) नामक स्थान पर वि.सं. 1130 (सन 1073 ई.) में हुआ था। इनके पिताजी ताहड़जी एवं माताजी रामकुँवरी थी। तेजाजी का विवाह पनेर निवासी रामचन्द्रजी या रायमल जी की पुत्री पेमलदे से हुआ। तेजाजी को परम गौरक्षक एवं गायों का मुक्तिदाता माना जाता है। इन्हें ‘काला और बाला’ देवता भी कहा जाता है। इन्होंने लाछा गुजरी की गायें मेरों से छुड़ाने हेतु वि.सं. 1160 भाद्रपद शुक्ला दशमी को सुरसरा किशनगढ़, अजमेर में युद्ध किया और अपने प्राणोत्सर्ग किए। तेजाजी की घोड़ी लीलण सिणगरी थी। जाट जाति में इनकी अधिक मान्यता है। राज्य के लगभग सभी भागों में लोकदेवता तेजाजी को ‘सर्पों के देवता’ के रूप में पूजा जाता है।
देवनारायणजी-
इनका जन्म वि.सं. 1300 (सन 1243 ई.) को आसीन्द भीलवाड़ा में बगडावत कुल के नागवंशीय गुर्जर परिवार में हुआ। इनका बचपन का नाम उदयसिंह था। इनकी पत्नी धार नरेश जयसिंह देव की पुत्री पिपलदे थी। देवनारायण जी का घोड़ा ‘लीलागर’ था। इन्होंने अपने पिता की हत्या का बदला भिनाय के शासक को मारकर लिया। अपने पराक्रम और सिद्धियों का प्रयोग अन्याय का प्रतिकार करने व आम जनता की भलाई के लिए किया। देवजी का मूल ‘देवरा’ आसींद भीलवाड़ा के पास गोठां दडावट में है। इनके अन्य प्रमुख स्थान देवमाली ब्यावर, अजमेर , देवधाम जोधपुरिया निवाई, टोंक व देव डूंगरी पहाड़ी चित्तौड़गढ़ में हैं। देवनारायण जी के देवरों में उनकी मूर्ति की जगह बड़ी ईंटों की पूजा की जाती है। इनके प्रमुख अनुयायी गुर्जर जाति के लोग हैं जो देवनारायण जी को ‘विष्णु का अवतार’ मानते हैं।इनकी पड़ गुजर भोपों द्वारा जंतर वाद्य के साथ बाँची जाती है। यह राज्य की सबसे बड़ी पड़ है।
वीर कल्लाजी राठौड
जन्म – विक्रम संवत् 1601 में, जन्म स्थल- मेड़ता (नागौर)।
पिता-राव अचलाजी,
दादा-आससिंह।
कल्लाजी मीराबाई के भतीजे थे। 1567 ई. में अकबर के विरुद्ध तथा उदयसिंह के पक्ष में युद्ध करते हुए जयमल राठौड़ तथा पत्ता/फत्ता सिसोदिया सहित वीर कल्लाजी भी शहीद हुए। युद्ध भूमि में चतुर्भुज के रूप में वीरता दिखाए जाने के कारण इनकी ख्याति चार हाथों वाले लोकदेवता के रूप में हुई। कल्लाजी के सिद्ध पीठ को ‘रनेला‘ कहते हैं। कल्लाजी के गुरु भैरवनाथ थे। चित्तौड़गढ़ किले के भैरवपोल के पास कल्लाजी की छतरी बनी हुई है। वीर कल्लाजी चार हाथों वाले शेषनाग का अवतार लोकदेवता के रूप में प्रसिद्ध हुए। नोट – डूंगरपुर जिले के सामलिया क्षेत्र में कल्लाजी की काले पत्थर की मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति पर प्रतिदिन केसर तथा अफीम चढ़ाई जाती है। कल्लाजी शेषनाग के अवतार के रूप में पूजनीय हैं। कल्लाजी के थान पर भूत-पिशाच ग्रस्त लोगों व रोगी पशुओं का इलाज होता है।
मल्लीनाथ जी- इनका जन्म सन् 1358 ई. में मारवाड़ के राव तीड़ा जी सलखा जी के घर हुआ। इनकी माता का नाम जाणीदे था। तिलवाड़ा बाड़मेर में इनका प्रसिद्ध मंदिर है। जहाँ प्रत्येक वर्ष चैत्र कृष्णा एकादशी से चैत्र शुक्ला एकादशी तक 15 दिन का मेला भरता है। इनकी राणी रूपादे का मंदिर भी तिलवाड़ा से कुछ दुरी पर मालाजाल गाँव में स्थित है। लोकमान्यता है कि बाड़मेर के मालाणी क्षेत्र का नाम मल्लीनाथजी के नाम पर पड़ा।
तल्लीनाथ जी-
इनका वास्तविक नाम गांगदेव राठौड़ तथा इनके पिता का नाम बीरमदेव था। तल्लीनाथ जी राजस्थान में जालौर जिले के प्रसिद्ध लोक देवता हैं। इनके गुरु जालंधर नाथ थे। ये शेरगढ़ जोधपुर ठिकाने के शासक थे। पाँचोटा गाँव जालौर के निकट पंचमुखी पहाड़ी के बीच घोड़े पर सवार बाबा तल्लीनाथ की मूर्ति स्थापित है।
कल्ला जी-
इनका जन्म सामियाना गाँव में राव अचलाजी के घर आश्विन शुक्ला अष्टमी वि.सं. 1601 (सन 1544) को हुआ। भक्त शिरोमणि मीरा बाई इनकी चचेरी बहिन थी।
चित्तौड़गढ़ के तीसरे शाके (1567 ई. में) महाराणा उदयसिंह जी की ओर से अकबर के विरुद्ध युद्ध करते हुए या वीरगति को प्राप्त हुए। युद्ध में घायल वीर जयमल को इन्होंने अपने कंधे पर बिठाकर युद्ध किया था और दोनों ही युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। रणभूमि में चतुर्भुज के रूप में दिखाई गई वीरता के कारण इनकी ख्याति राजस्थान चार हाथों वाले लोक देवता के रूप में हुई। चित्तौड़गढ़ दुर्ग में भैरव पोल पर कल्लाजी राठौड़ की एक छतरी बनी हुई है। सामलिया क्षेत्र (डूंगरपुर) में कल्लाजी की काले पत्थर की प्रतिमा स्थापित की गई है। इनको योगाभ्यास व जड़ी-बूटियों व इनके उपयोग का अच्छा ज्ञान था।
हड़बू जी-
इनका जन्म भूंडोल नागौर के राजा मेहाजी साँखला के घर हुआ। मारवाड़ के राव जोधा के समकालीन थे। ये रामदेवजी के मौसेरे भाई थे। बेंगटी (फलौदी) में हड़बू जी का प्रमुख पूजा स्थल है एवं इनके पूजारी साँखला राजपूत होते हैं। यहाँ स्थापित मंदिर में ‘हड़बू जी की गाड़ी’ की पूजा की जाती है। हड़बू जी शकुनशास्रके भी अच्छे जानकार थे। इनके जीवन पर लिखा ग्रंथ ‘साँखला हरभू का हाल’ है।
लोकदेवता मेहाजी मांगलिया जी
मांगलियों के ईष्ट देव होने के कारण इन्हें मांगलिया मेहाजी कहा जाता है।
इनके पिता का नाम – गोपालराज सांखला था। ये राव चूड़ा के समकालीन थे।
इनके घोड़े का नाम-किरड़ काबरा था। जैसलमेर के राव राणंगदेव भाटी के अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष किया और उससे युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। बापिणी गाँव (ओसियां, जोधपुर ) में इनका प्रमुख पूजा स्थल है। जहाँ कृष्ण जन्माष्टमी (भाद्रपद कृष्णा अष्टमी ) को लोकदेवता मेहाजी की जन्माष्टमी मनाई जाती है।
लोकदेवता वीर तेजाजी
‘मारवाड़ का जाट’ में भाट छोटूनी की बही अनुसार इनका जन्म – 1074 ई. (वि.स. 1131 ), खड़नाल / खरनाल नागौर में, माघ शुक्ला चतुदर्शी को हुआ। तेजाजी धौल्या गोत्र के नागवंशीय जाट थे। इनके पिता का नाम-ताहड़जी जाट, माता का नाम – राजकुंवरी / रामकुंवरी, पत्नी-पेमलदे पनेर के रायचन्द्र की पुत्री थी।
तेजाजी ने लाछा गुर्जरी की गायों को मेर (वर्तमान आमेर) के मीणाओं से छुड़ाया।
सुरसरा (किशनगढ़, अजमेर) में जीभ पर साँप काटने से तेजाजी को वीरगति प्राप्त हुई। इनकी घोड़ी का नाम लीलण सिणगारी था। तेजाजी की मृत्यु की सूचना उनकी घोड़ी ने घर आकर दी। तेजाजी के पुजारी को घोड़ला कहते थे। काला और बाला के देवता, धौलियावीर, कृषि कार्यों के उपकारक देवता, गौरक्षक देवता के रूप में पूजनीय। अजमेर व नागौर में विशेष पूजनीय। तेजाजी की याद में प्रतिवर्ष तेजादशमी (भाद्रपद शुक्ला दशमी ) को परबतसर (नागौर) में भव्य पशु मेला भरता है जो आय की दृष्टि से राजस्थान का सबसे बड़ा पशु मेला है। सेंदरिया, ब्यावर, भावतां, सुरसरा (अजमेर) तथा खरनाल (नागौर) में तेजाजी के प्रमुख पूजा स्थल है।
साँप काटने पर तेजाजी के भोपे चबूतरे (तेजाजी के थान ) पर पीड़ित व्यक्ति को ले जाकर गौमूत्र से कुल्ला करके तथा दाँतों में गोबर की राख दबाकर साँप कांटे हुए स्थान से जहर चूसना प्रारम्भ करता है। तेजाजी पर 2011 में पाँच रुपये का डाक टिकट जारी किया गया था। राज्य में किसान हल चलाने से पूर्व तेजाजी का स्मरण करते है तथा तेजाजी को लेकर रचे गए लोक साहित्य को तेजा टेर/ तेजा गीतकहा जाता है।
भूरिया बाबा
भूरिया बाबा को गौतम बाबा के नाम से भी जाना जाता यह मीणा जाति के आराध्य देवता है। मीणा जाति के लोग भूरिया बाबा ( गौमतेश्वर) की झूठी कसम नहीं खाते हैं। दक्षिण राजस्थान के गौड़वाड़ क्षेत्र में इनके मन्दिर हैं। गौतमेश्वर महादेव (भूरिया बाबा ) का प्रसिद्ध मंदिर प्रतापगढ़ व सिरोही में स्थित है। सिरोही में स्थित गौतमेश्वर बाबा के मंदिर में पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे पर हमला हुआ था। भूरिया बाबा का प्रसिद्ध मंदिर पोसलिया गाँव (सिरोही) में स्थित है, जहाँ वर्दीधारी पुलिसकर्मियों का जाना मना है। गौतमेश्वर ऋषि महादेव (भूरिया बाबा) का प्रमुख मंदिर स्थित है। जिसका निर्माण एक गुर्जर ने शुरू किया था परंतु मीणा जाति ने इसे पूर्ण करवाकर यहाँ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। भूरिया बाबा का मुख्य स्थल डूंगरपुर जिले में है।
भूरिया बाबा शौर्य का प्रतीक माने जाते हैं।
लोक देवता इलोजी
इलोजी को मारवाड़ में छेडछाड के अनोखे लोक देवता के रूप में पूजा जाता है।
मारवाड़ में इलोजी के बारे में ऐसी मान्यता हैं कि ये अविवाहिता को दुल्हन, नव दम्पत्तियों को सुखद ग्रहस्थ जीवन और बांझ स्त्रियों को संतान देने में सक्षम है। जबकि ये स्वयं जीवनभर कुंवारे रहे। महिलाऐं अच्छे पति के लिए एवं पुरुष अच्छी पत्नी के लिए इलोजी की पूजा करते है। इलोजी राजा हिरण्यकश्यप की बहिन होलिका के होने वाले पति थे । इलोजी की मूर्ति आदमकद नग्न अवस्था में होती है ।
वीर फत्ताजी
वीर फत्ताजी का जन्म सार्थौ गाँव (जालौर) में गज्जारणी परिवार हुआ था। इनके गाँव पर लूटेरों के आक्रमण के समय इन्होंने भीषण युद्ध किया था। इनकी स्मृति में हर वर्ष भाद्रपद शुक्ला नवमी को मेला भरता है। बाबा झुंझारजी इनका जन्म इमलोहा गाँव (सीकर) में हुआ था। झुंझारजी का थान प्रायः खेजड़ी के वृक्ष के नीचे होता है।
झुंझारजी की याद में रामनवमी को स्यालोदड़ा (सीकर) में इनका मेला भरता है।
स्यालदोड़ा में झुंझारजी व उनके दोनों भाइयों के साथ-साथ दूल्हा व दूल्हन के प्रस्तर स्तंभ भी पूजनीय है।
लोक देवता डूंगजी - जवाहरजी
डूंगजी - जवाहरजी का जन्म बाठौठ-पाटोदा (सीकर) में हुआ था । डूंगजी-जवाहर जी का मुख्य पूजा स्थल भी बाठौठ-पाटोदा (सीकर) में है । डूंगजी जवाहर जी दोनों चाचा भतीजा शेखावटी क्षेत्र में धनी लोगों (धाडायती) से धन लूटकर उनका धन गरीबों एवं जरूरतमंदों में बांट दिया करते थे । शेखावाटी के लोग डूंग जी - जवाहर जी की पूजा लोक देवता के रूप में करते है । शेखावाटी के लोग डूंगजी-जवाहरजी को बलजी-भूरजी के उपनाम से भी जाना जाता हैं ।
भोमियाजी
गाँव-गाँव में भूमि रक्षक देवता के रूप में प्रसिद्ध
मामादेव
वर्षा के देवता।मामादेव का कोई मंदिर नहीं होता न ही कोई मूर्ति होती है। गाँव के बाहर लकड़ी के तोरण के रूप में मामादेव पूजे जाते हैं। इन्हें प्रसन्न करने के लिए “भैंसे की कुर्बानी” दी जाती है। इनका प्रमुख मन्दिर स्यालोदड़ा (सीकर) में स्थित है। जहाँ प्रतिवर्ष रामनवमी को मेला भरता है।
केसरिया कुंवरजी
लोकदेवता गोगाजी के पुत्र।
इनके थान पर सफेद रंग की ध्वजा फहराते हैं।
बाबा झूंझारजी : जन्म – इमलोहा गाँव (सीकर) भगवान राम के जन्म दिवस रामनवमी को स्यालोदड़ा (सीकर) में इनका मेला भरता है।
हरिराम बाबा :- झोरड़ा (नागौर) में इनका पूजा स्थल गुरु – भूरा इन्होने साँप काटे हुए पीड़ित व्यक्तियों को ठीक करने का मंत्र सिखा
वीर बिग्गाजी :
जन्म – जांगल प्रदेश
पिता – राव मोहन
माता – सुल्तानी देवी
बीकानेर के जाखड़ समाज के कुल देवता
मुस्लिम लुटेरों से गायों की रक्षा की
पनराजजी
इनका जन्म नयागाँव, जैसलमेर में हुआ। मुस्लिम लूटेरों से काठौड़ी गाँव के ब्राह्मणों की गायें छुड़ाते हुए शहीद हुए। इनकी स्मृति में जैसलमेर जिले के जनराजसर गांव में वर्ष में दो बार भाद्रपद शुक्ल दशमी और माघ शुक्ल दशमी को मेला लगता है।
देव बाबा:- देव बाबा का प्रसिद्ध मंदिर नंगला जहाज गाँव (भरतपुर) में स्थित है। जहाँ भाद्रपद शुक्ला पंचमी व चैत्र शुक्ला पंचमी को मेला भरता है। देवबाबा के प्रति गुर्जर जाति में अपार श्रद्धा पाई जाती है। पशु चिकित्सा का ज्ञात होने के कारण इन्हें ग्वालों के पालनहार, कष्ट निवारक देवता आदि उपनामों से भी जाना जाता है। इनकी याद में चरवाहों को भोजन करवाया जाता है। इसे ग्वाला जीमण दावत कहा जाता है।
देव बाबा की वाहन (सवारी) भैंसा (पाड़ा) होता है। लोक मान्यता के अनुसार इन्होंने अपनी मृत्यु के बाद भी अपनी बहिन एलादी को भात पहनाया था।
इनका स्थान हमेशा नीम के पेड़ के नीचे होता है।

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