राजस्थान का प्राचीन ऐतिहासिक सभ्यता कालीबंगा आहड़ गणेश्वर बालाथल।

राजस्थान का प्राचीन सभ्यता 

राजस्थान अपनी जटिल भू-जैविकीय संरचना के लिये जाना जाता है। इस सम्पूर्ण प्रदेश को अरावली पर्वत माला दो भिन्न भागों में बांटती है। इस पर्वतमाला के पूर्व का भाग हरा-भरा क्षेत्र है तो पश्चिमी भाग बलुई स्तूपों वाला रेगिस्तान। प्रागैतिहासिक काल में विश्व दो भूखण्डों- अंगारालैण्ड तथा गौंडवाना लैण्ड में बंटा हुआ था। इन दोनों भूखण्डों के बीच में टेथिस महासागर था। राजस्थान के मरुस्थलीय एवं मैदानी भाग टेथिस सागर को नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी से पाट दिये जाने से बने जबकि गौंडवाना लैण्ड के एक अंश के विलग होकर उत्तर की ओर खिसकने से राजस्थान के अरावली पर्वत एवं दक्षिणी पठार बने।

कालीबंगा :-  राजस्थान में दृषद्वती और सरस्वती नदी की घाटी में पुराविद अमलानंद घोष ने करीब दो दर्जन पुरास्थलों / प्राचीन सभ्यता स्थल की खोज की। इनमें हनुमानगढ़ जिले में घग्घर नदी के किनारे स्थित कालीबंगा प्रमुख है। बाद में डॉ . बी.बी. लाल और बी.के. थापर के निर्देशन में यहाँ खुदाई हुई। खुदाई में यहाँ सिंधु – सरस्वती सभ्यता काल का एक नगर मिला है, जिसके मकानों में ईंटों का प्रयोग किया गया था। मकानों में चार – पाँच बड़े तथा कुछ छोटे कमरे होते थे। बस्ती के गंदे पानी के निकास के लिए यहाँ लकड़ी व ईटों की नालियाँ बनी हुई थीं। यहाँ चबूतरे भी मिले हैं, जिन पर अग्निकुण्ड ( वेदिकाएँ ) बने हुए हैं। सम्भवतया यह धार्मिक कार्यों हेतु प्रयुक्त होते थे।

               दूसरे टीले के उत्खनन में एक दुर्ग के अवशेष मिले हैं। कालीबंगा की नगर योजना सिंधु सरस्वती सभ्यता की नगर योजना के समरूप दिखाई देती है। इस क्षेत्र में नगर की प्राचीर के बाहर जोती हुई कृषि भूमि के साक्ष्य भी मिले हैं। खुदाई में गाय के मुख वाले प्याले, ताँबे के बैल, काँस्य के दर्पण, हाथी दाँत का कंघा, मिट्टी के बर्तन, काँच की मणियाँ, खिलौने आदि प्राप्त हुए हैं। कालान्तर में नदियों का पानी सूखने और मरुस्थल के बढ़ने से यह समृद्ध बस्ती उजड़ गई।

 रंगमहल सभ्यता – हनुमानगढ़, घग्घर नदी, उत्खनन् 1952 हन्नारिड (स्वीडन) द्वारा । यह समय 1000 से 300 ई.पूर्व है। यहां कनिष्क प्रथम व कनिष्क तृतीय की मुद्रा पंचमार्क के सिक्के मिले हैं। रंगमहल से 105 तांबे के सिक्के मिले। गुरु शिष्य की मूर्तियां मिली, गांधार शैली की मूर्तियां मिली हैं। यहां सें मृणमूर्तियाँ मिली जिन पर गांधार शैली की छाप के कुछ पंचमार्क सिक्के मिले। यहां से कनिष्क I व कनिष्क I सिक्के मिले। वासुदेव काल के सिक्के मिले। यहां से 105 तांबें सिक्के मिले। गुरू शिष्य की मूर्ति मिली। यहां से घंटाकर मृदपात्र, रोटींदार घड़े, प्याले कटोरे, बर्तनों के ढक्कन, दीपक, दीपदान, धूपदान मिले। अनेक मृणमूर्तियाँ मिली। जिन पर श्रीकृष्ण के अंकन मिले। ये मूर्तियां गांधार शैली की हैं। बच्चों के खेलने की मिट्टी की छोटी पहियेदार गाड़ी मिली ।

गणेश्वर सभ्यता :- कांतली नदी नीमकाथाना सीकर । इस सभ्यता की खोज 1972 में रतनचन्द्र अग्रवाल ने की व इसका उत्खनन 1978 रतनचन्द्र अग्रवाल व विजय कुमार ने किया । गणेश्वर को “ताम्र सभ्याताओं की जननी” कहा जाता है। ध्यान रहे तांबा जिला झुन्झुनु को व ताम्रवती नगरी आहड़ को कहा जाता है। इस सभ्यता का समय 2800 ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व माना गया है।

यहां से प्राक् हड़प्पा व हड़प्पा युग के अवशेष मिले हैं। यहां भवन निर्माण में पत्थर का उपयोग होता था। यहां से पत्थर के पूल व मकान, तांबे का मछली पकड़ने का कांटा मिला है। दोहरी पेचदार पिनें मिली हैं। ऐसी पिने मध्य एशिया में मिली हैं। सिन्धु घाटी में तांबा यही से निर्यात होता था। इसलिए इसे ‘पुरातत्व का पुष्कर’ कहा जाता है। यहां के लोग मांसाहारी थे। यहां से 2 हजार तांबे के उपकरण मिले, गणेश्वर से नालीदार प्याला मिला। यहां से प्राप्त तांबें की सामग्री में 99 प्रतिशत तांबा था। गणेश्वर से जो मृदपात्र प्राप्त हुए हैं वे ‘कृष्णवर्णी मृदपात्र/गैरूक मृदपात्र’ कहलाते हैं। गणेश्वर से प्राप्त ‘रिजवर्ड शिल्प मृदभाण्ड’ गणेश्वर के अलावा सिन्धु घाटी के बनवाली (हरियाणा) से मिला है।

बालाथल (उदयपुर):-उदयपुर जिले में बालाथल गाँव के पास बेड़च नदी के निकट एक टीले के उत्खनन से यहाँ ताम्र-पाषाणकालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस सभ्यता की खोज 1962-63 में डाॅ. वी. एन. मिश्र द्वारा की गई। डॉ. वी. एस. शिंदे, आर. के. मोहन्ते, डॉ. देव कोठारी एवं डॉ. ललित पाण्डे का सम्बन्ध इसी सभ्यता से माना जाता है। इन्होंने 1993 में इस सभ्यता का उत्खनन किया था। बालाथलमें उत्खनन से एक 11 कमरों के विशाल भवन के अवशेष मिले है। यहाँ के लोग बर्तन बनाने तथा कपड़ा बुनने के बारे में जानकारी रखते थे।  बालाथल से लौहा गलाने की 5 भटि्टयाँ प्राप्त हुई हैं। बालाथल से कपड़े का टुकड़ा प्राप्त हुआ है। बालाथल के उत्खनन में मिट्‌टी से बनी सांड की आकृतियाँ मिली हैं। बालाथल निवासी माँसाहारी भी थे। यहाँ से 4000 वर्ष पुराना कंकाल मिला है जिसको भारत में कुष्ठ रोग का सबसे पुराना प्रमाण माना जाता है। यहाँ से योगी मुद्रा में शवाधान का प्रमाण प्राप्त हुआ है। बालाथल में अधिकांश उपकरण तांबे के बने प्राप्त हुए हैं। यहाँ से तांबे के बने आभूषण भी प्राप्त हुए है। यहाँ के लोग कृषि, शिकार तथा पशुपालन आदि से परिचित थे। बालाथल से प्राप्त बैल व कुत्ते की मृण्मूर्तियां विशेष उल्लेखनीय है।

बैराठ (जयपुर) :-बैराठ जयपुर जिले में शाहपुरा उपखण्ड में बाणगंगा नदी के किनारे स्थितलौहयुगीन स्थलहै। बैराठ का प्राचीन नाम ‘विराटनगर’ था। महाजनपद काल में यह मत्स्य जनपद की राजधानी था। यहाँ पर उत्खनन कार्यवर्ष 1936-37 में दयाराम साहनीद्वारा तथा 1962-63 में नीलरत्न बनर्जी तथा कैलाशनाथ दीक्षित द्वारा किया गया।  वर्ष 1837 मेंकैप्टन बर्टने यहाँ से मौर्य सम्राट अशोक के भाब्रू शिलालेख की खोज की। वर्तमान में यह शिलालेखकलकत्ता संग्रहालयमें सुरक्षित है। भाब्रू शिलालेख में सम्राट अशोक को ‘मगध का राजा’ नाम से संबोधित किया गया है। भाब्रू शिलालेख के नीचेबुद्ध, धम्म एवं संघलिखा हुआ है। बैराठ मेंबीजक की पहाड़ी, भीमजी की डूंगरी तथा महादेवजी की डूंगरीसे उत्खनन कार्य किया गया। यहाँ से मौर्यकालीन तथा इसके बाद के समय के अवशेष मिले है। यहाँ से 36 मुद्राएँ प्राप्त हुई है जिनमें 8 पंचमार्क चांदी की तथा 28 इण्डो-ग्रीक तथा यूनानी शासकों की है। 16 मुद्राएँ यूनानी शासकमिनेण्डरकी है। उत्तर भारतीय चमकीले मृद्‌भांड वाली संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले राजस्थान में सबसे महत्वपूर्ण प्राचीन स्थल बैराठ है।  वर्ष 1999 मेंबीजक की पहाड़ीसे अशोक कालीन गोल बौद्ध मंदिर, स्तूप एवं बौद्ध मठ के अवशेष मिले हैं जो हीनयान सम्प्रदाय से संबंधित है। बैराठ सभ्यता के लोगों का जीवन पूर्णत: ग्रामीण संस्कृति का था। बैराठ में पाषाणकालीन हथियारों के निर्माण का एक बड़ा कारखाना स्थित था। यहाँ भवन निर्माण के लिए मिट्‌टी की बनाई ईंटों का प्रयोग अधिक किया जाता था। यहाँ पर शुंग एवं कुषाण कालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये सभी एक मृद्‌भांड में सूती कपड़े से बंधी मिली है।
बैराठ सभ्यता के लोग लौह धातु से परिचित थे। यहाँ उत्खनन से लौहे के तीर तथा भाले प्राप्त हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि हूण शासकमिहिरकुलने बैराठ को नष्ट कर दिया। 634 ई. में हेनसांग विराटनगर आया था तथा उसने यहाँ बौद्ध मठों की संख्या 8 बताई है। बैराठ से ‘शंख लिपि’ के प्रमाण प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं। यहाँ से मुगलकाल में टकसाल होने के प्रमाण मिलते है। यहाँ मुगल काल में ढाले गये सिक्कों पर ‘बैराठ अंकित’ मिलता है। यहाँ बनेड़ी, ब्रह्मकुण्ड तथा जीणगोर की पहाड़ियों से वृक्षभ, हिरण तथा वनस्पति का चित्रण प्राप्त होता है।


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