राजस्थान में 1857 के विद्रोह का वर्णन

 

1857 के विद्रोह:-इस सेना की छावनी जोधपुर से कुछ दूर एरिनपुरा में थी। अँग्रेज़ सेना की राजस्थान की छह प्रमुख छावनियों में यह भी एक थी। राजस्थान में स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत 28 मई, 1857 को नसीराबाद से हुई थी। राजस्थान में क्रांति की शुरुआत नासिराबाद छावनी अजमेर से 28 मई 1857 को हुई। इससे पहले नसीराबाद छावनी का निर्माण 25 जून 1818 को किया गया। 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के सैनिक बख्तावर सिंह द्वारा अंग्रेज अधिकारी प्रिचार्ड से पूछे। जिनका जवाब अंग्रेज अधिकारी द्वारा ऊटपटाँग तरीके से दिया गया।

क्रांति शुरू होने के समय राजपूताना में नसीराबाद, नीमच, देवली, ब्यावर, एरिनपुरा एवं खेरवाड़ा में सैनिक छावनियाँ थी।

मेरठ में हुए विद्रोह (10 मई,1857) की सूचना राजस्थान के ए.जी.जी. (एजेन्ट टू गवर्नर जनरल) जार्ज पैट्रिक लॉरेन्स को 19 मई, 1857 को प्राप्त हुई।  राजस्थान में क्रांति का प्रारम्भ 28 मई, 1857 को नसीराबाद छावनी के 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री के सैनिकों द्वारा हुआ। नसीराबाद छावनी के सैनिकों में 28 मई, 1857 को विद्रोह कर छावनी को लूट लिया तथा अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर आक्रमण किये। मेजर स्पोटिस वुड एवं न्यूबरी की हत्या के बाद शेष अंग्रेजों ने नसीराबाद छोड़ दिया। छावनी को लूटने के बाद विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। इन सैनिकों ने 18 जून, 1857 को दिल्ली पहुँचकर अंग्रेज पलटन को पराजित किया, जो दिल्ली का घेरा डाले हुए थी। नसीराबाद की क्रांति की सूचना नीमच पहुँचने पर 3 जून, 1857 को नीमच छावनी के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने शस्त्रागार को आग लगा दी तथा अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर हमला कर एक अंग्रेज सार्जेन्ट की पत्नी तथा बच्चों का वध कर दिया। नीमच छावनी के सैनिक चित्तौड़, हम्मीरगढ़ तथा बनेड़ा में अंग्रेज बंगलों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। छावनी को लूटकर ये क्रांतिकारी टोंक पहुँचे, जहाँ जनता ने नवाब के आदेशों की परवाह न करते हुए इनका स्वागत किया। टोंक से आगरा होते हुये ये सैनिक दिल्ली पहुँच गये। कैप्टन शावर्स ने कोटा, बूँदी तथा मेवाड़ की सेनाओं की सहायता से नीमच पर पुनः अधिकार कर लिया। 1835 ई. में अंग्रेजों ने जोधपुर की सेना के सवारों पर अकुशल होने का आरोप लगाकर जोधपुर लीजियन का गठन किया। इसका केन्द्र एरिनपुरा रखा गया।

आउवा के ठाकुर कुशल सिंह

आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह चंपावत मारवाड़ क्षेत्र में संघर्ष के नेता थे। उनका संपर्क महान स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे से था। जोधपुर के जागीरदारों में जोधपुर के शासक तख्त सिंह के विरुद्ध भारी असंतोष था। इन विरोधियों का नेतृत्व आउवा के ठाकुर कुशल सिंह कर रहे थे।

राजस्थान के ठाकुर कुशाल सिंह जोधपुर रियासत का इतिहास जिसे मारवाड़ के नाम से भी जाना जाता है। इसमें 8 स्थान थे, जिनमें एक आउवा भी आता था। ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत पाली जिले के आउवा के ठाकुर थे। उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जोधपुर की रियासत और ब्रिटिश सेना को हराकर मारवाड़ में स्वतंत्रता की एक अलग लहर जगाई थी। ठाकुर कुशाल सिंह चंपावत ने भी 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह की बागडोर उठाने वाले क्रांतिकारी कार्यों में एक क्रांतिकारी के रूप में अपना पूरा सहयोग दिया। और अंग्रेजी सेना को भी परास्त किया। वह स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे के घनिष्ठ मित्र और सहयोगी भी थे।

ठाकुर कुशाल सिंह मारवाड़ राज्य के अंतर्गत आउवा स्थान के एक जागीरदार थे। सामंतों के पारंपरिक अधिकारों में हस्तक्षेप और नज़राना और हुक्मना की राशि को लेकर वह महाराजा तख्त सिंह का विरोधी था। इस सब के लिए परोक्ष रूप से अंग्रेजी नीतियां जिम्मेदार थी, मारवाड़ में तत्कालीन शासक तख्त सिंह के प्रति काफी असंतोष था, जमींदार वर्ग उनसे असंतुष्ट था। जिन्होंने आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह को अपना नेता चुना था, उनके नेतृत्व में सारी क्रान्तिकारी लड़ाई लड़ते रहे। ओनाद सिंह और हीथ कोट की मृत्यु की खबर जब एजेंट टू गवर्नर जनरल पैट्रिक लॉरेंस और मारवाड़ के राजनीतिक एजेंट मैक मॉसन के नेतृत्व में जबकि दूसरी तरफ कुशल सिंह के नेतृत्व में 18 को युद्ध हुआ सितम्बर 1857 को चेलावास नामक स्थान पर। जिसमें क्रांतिकारियों ने मैकमेसन की गर्दन काटकर आउवा के किले के द्वार पर लटका दी थी। यह देख लॉरेंस वहां से भाग गया। इस युद्ध को "काले-गोरे" का युद्ध भी कहा जाता है। अंग्रेजों की हार का बदला लेने के लिए कर्नल होम्स के नेतृत्व में पालमपुर गुजराती ने 20 जनवरी 1858 को नसीराबाद अजमेर की संयुक्त सेना भेजी, जिसमें कुशाल सिंह ने 24 जनवरी 1858 को एरिनपुरा के सैनिकों को दबा दिया और सुगली माता 1857 की क्रांति की देवी को लूट लिया।  वहाँ। यह मूर्ति अंग्रेज अपने साथ लाए थे, और यह वर्तमान में पाली के बांगड़ संग्रहालय में स्थित है। कुशल सिंह ने आउवा ठाकुर पृथ्वी सिंह को सौंपकर सलूम्बर (कोठारिया) के ठाकुर जोध सिंह के घर में शरण ली थी।  कुशाल सिंह ने 8 अगस्त 1860 को नीमच में अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।


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