सिन्धु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल का वर्णन एवं महत्व

 

शिक्षा डेस्क : -शारीरिक रूप से आधुनिकता लिए हुए मनुष्य का प्रमाण भारतवर्ष के उपमहाद्वीप में 75,000 वर्ष पहले पाया गया। भारतवर्ष के इतिहास में दक्षिण भारत की अन्य सभ्यताओं का भी विवरण प्राप्त होता है। मध्य प्रदेश के भीमबेटका में पाए गये शैल चित्रों का समय काल 40,000 ई पू से 9,000 ई पू के मध्य माना गया है।  ऐसा माना जाता है कि यहाँ पर पहली बार स्थायी रूप से बस्तियों का निर्माण वर्ष 9,000 ई पू के आस पास हुआ था। 

सिन्धु घाटी सभ्यता :- भारतवर्ष उपमहाद्वीप में कांस्य युग 3300 ईसा पूर्व के समय आया था और इसी समय से यहाँ पर सिन्धु घाटी सभ्यता का आरम्भ होता है।  यह सभ्यता सिन्धु नदी के किनारे विकसित हुई थी अतः इसे सिन्धु घाटी सभ्यता कहा जाता है। सिन्धु घाटी सभ्यता का प्रसार बहुत अधिक क्षेत्रफल में था जिसके अंतर्गत गुजरात का गंगा- यमुना दोआब तथा दक्षिणी पूर्वी अफगानिस्तान भी आता था।  सिन्धु घाटी सभ्यता विश्व के तीन प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है।  इसके साथ बाक़ी दो प्राचीनतम सभ्यताएं हैं, मेसोपोटामिया की सभ्यता और मिस्त्र की सभ्यता।  यह सभ्यता जनसंख्या के अनुसार भी बहुत बड़ी थी।  मुख्य रूप से यह सभ्यता आधुनिक भारत में जैसे गुजरात, हरयाणा, पंजाब और राजस्थान तथा आधुनिक पाकिस्तान जैसे सिंध, पंजाब बलूचिस्तान में स्थापित थी।  सिंधुघाटी सभ्यता का काल 2600 ई पू से 1900 ई पू के बीच का है। 

वैदिक काल :-वैदिक काल से मिले साक्ष्य साहित्य के रूप में अधिक और भौतिक पुरातात्विक साक्ष्य के रूप में कम मिलते हैं। ऋग्वेद में दिवोदास के नाम से एक प्रसिद्ध भरत राजा का उल्लेख है, जिन्होंने दास शासक शंबर को हराया था, जिन्होंने कई पहाड़ी किलों की कमान संभाली हुई थी। इसमें पुर नामक किलेबंदी में रहने वाली जनजातियों का भी उल्लेख है। ऐतरेय ब्राह्मण तीन यज्ञ अग्नियों को तीन किलों के रूप में संदर्भित करता है जो असुरों (राक्षसों) को यज्ञ बलिदान में बाधा डालने से रोकती हैं। इंद्र को वैदिक साहित्य में पुरंदर या किलों के विनाशक के रूप में संदर्भित किया गया है।

सिंधु घाटी सभ्यता की विशेषताएं

    इस सभ्यता का विस्तार उत्तर में पंजाब के रोपड़ जिले से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरन से लेकर उत्तर पूर्वी में मेरठ तक फैला हुआ था। इस सभ्यता का क्षेत्रफल त्रिभुजाकार था। अब तक इस सभ्यता के 250 स्थानों का पता चला है। इनमें नगरों की संख्या 6 है। इस सभ्यता की विशेषता इस प्रकार से निकाली जा सकती है।

 नगर एवं भवन निर्माण- यह नगरीय सभ्यता थी, नगर योजना और भवन निर्माण कला में यह सभ्यता प्रसिद्ध थी। नगरों का निर्माण नदियों के तट पर किया गया था। सड़कें नियमित रूप से एक दूसरे से जुड़ी हुई थी। नगरों में सड़कों का जाल बिछा हुआ मिला है। सभी सड़कें 10 मीटर से अधिक चौड़ी होती थी और पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण को सरल रेखा में एक दूसरे को समकोण पर काटती हुई जाती थी। यह छोटी-छोटी सड़कों व गलियों द्वारा मुहल्लों में बटे हुए होते थे। मुहल्ला लगभग 366 मीटर लंबा और 244 मीटर चौड़ा होता था। सड़कों के किनारे स्थान स्थान पर कूड़ेदान बने हुए थे। सड़क के दोनों किनारों पर नीचे गहरी नालिया बनी हुई थी। 

           खुदाई में प्राप्त स्नानागार सिंधु सभ्यता की मुख्य विशेषता में से एक है, मोहनजोदड़ो से विशाल सर्वजनिक स्नानागार प्राप्त हुआ है। और इसकी लंबाई 39 फीट और चौड़ाई 23 फीट तथा गहराई 8 फीट है। मोहनजोदड़ो में अन्न भंडार भी मिले हैं, जिसकी लंबाई 45.70 मीटर है, और 15.23 मीटर चौड़ा है। यहां से अन्य अन्न भंडार  भी मिले हैं, जो कि 15.23×6.09 मीटर आकार के हैं।

हड़प्पा :-1921  दयाराम साहनी ने हड़प्पा का उत्खनन किया। इस प्रकार इस सभ्यता का नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया व राखलदास बेनर्जी को मोहनजोदड़ो का खोजकर्ता माना गया। इस सभ्यता की खुदाई सबसे पहले वर्तमान पाकिस्तान में स्थित 'हड़प्पा' नामक स्थल पर हुई थी। अतः इसे 'हड़प्पा सभ्यता' भी कहा गया।

इस दौरान हड़प्पा से कई ऐसी ही चीजें मिली हैं, जिन्हें हिन्दू धर्म से जोड़ा जा सकता है। पुरोहित की एक मूर्ति, बैल, नंदी, मातृदेवी, बैलगाड़ी और शिवलिंग। 1940 में खुदाई के दौरान पुरातात्विकविभाग के एमएस वत्स को एक शिव लिंग मिला जो लगभग 5000 पुराना है। इस सभ्यता के मुख्य निवासी द्रविड़ और भूमध्यसागरीय थे।  सिंधु सभ्यता के सर्वाधिक पश्चिमी पुरास्थल सुतकांगेंडोर (बलूचिस्तान), पूर्वी पुरास्थल आलमगीर ( मेरठ), उत्तरी पुरास्थल मांदा ( अखनूर, जम्मू कश्मीर) और दक्षिणी पुरास्थल दाइमाबाद (अहमदनगर, महाराष्ट्र) हैं। मातृदेवी, पशुपतिनाथ, सूर्य,जल, पृथ्वी देवी ,लिंग, वृक्ष और प्रकृति देवी की पूजा करते थे।

कालीबंगन:-कालीबंगा 4000 ईसा पूर्व से भी अधिक प्राचीन मानी जाती है। सर्वप्रथम 1952 ई में अमलानन्द घोष ने इसकी खोज की। कालीबंगा विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं से सर्वश्रेष्ठ तो नहीं परंतु उनके समकक्ष मानी जा सकती है । इसीलिए डाँ. दशरथ शर्मा के अनुसार कालीबंगा को सामरिक व पुरातात्विक महत्व की दृष्टि से सिंधु घाटी सभ्यता की तीसरी राजधानी कहा जा सकता है । पिग्गट महोदय ने हड़प्पा व मोहनजोदडो को सिंधु घाटी सभ्यता की जुडवाँ राजधानियाँ कहा है । राजस्थान के बीकानेर जिले के सौंधी नामक स्थान से कालीबंगा के समान ही उपकरण प्राप्त हुए है। अमललानंद घोष ने इसे कालीबंगा प्रथम नाम से संबोधित किया। अमलानंद घोष का मानना था कि सौंथी संस्कृति के क्रमिक विकास से ही नगरीय सभ्यता का निर्माण हुआ। कालीबंगा में उत्खनन पांच स्तरों पर किया गया, जिसमें प्रथम व द्वितीय स्तर सिन्धु सभ्यता से भी प्राचीन एवं तीसरा, चौथा एवं पांचवा स्तर सिंधु सभ्यता के समकालीन माना जाता हैं।  कालीबंगा सुव्यवस्थित नगर योजना के अनुसार बसा हुआ था। 

धोलावीरा:-धोलावीरा स्थल सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़ा भारत का सबसे प्रमुख पुरातात्विक स्थल है । यह स्थल लगभग 4,500 साल पहले की हड़प्पा सभ्यता की दो सबसे उल्लेखनीय खुदाई में से बड़ा है। इसकी खोज वर्ष 1968 में पुरातत्त्वविद् जगतपति जोशी द्वारा की गई थी। पाकिस्तान के मोहनजोदड़ो, गनेरीवाला और हड़प्पा तथा भारत के हरियाणा में राखीगढ़ी के बाद धौलावीरा सिंधु घाटी सभ्यता का पांँचवा सबसे बड़ा महानगर है। धोलावीरा लूनी नदी के तट पर स्थित है। धोलावीरा की खोज जगतपति जोशी ने 1967-68 में की थी लेकिन इसका विस्तृत उत्खनन 1990-91 में रवीन्द्रसिंह बिस्ट ने किया था।  यह स्थल अपनी अद्भुत नगर योजना, दुर्भेद्य प्राचीर तथा अतिविशिष्ट जलप्रबंधन व्यवस्था के कारण सिन्धु सभ्यता का एक अनूठा नगर था। स्थानीय रूप से कोटाडा टिम्बा के रूप में भी जाना जाता है, इस साइट में प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता के एक शहर के खंडहर हैं। भूकंप ने धौलावीरा को बार-बार प्रभावित किया है, जिसमें 2600 ईसा पूर्व के आसपास विशेष रूप से गंभीर भी शामिल है। धोलावीरा का प्राचीन शहर, हड़प्पा सभ्यता का दक्षिणी केंद्र, गुजरात राज्य में खादिर के शुष्क द्वीप पर स्थित है ।
लोथल :-पुरातत्वविद एस. आर. राव की अगुवाई में कई टीमों ने मिलकर 1954 से 1963 के बीच कई हड़प्पा स्थलों की खोज की, जिनमें में बंदरगाह शहर लोथल भी शामिल है। यहाँ की सर्वाधिक प्रसिद्व उपलब्धि हड़प्पाकालीन बन्दरगाह के अतिरिक्त विशिष्ट मृदभांड, उपकरण, मुहरें, बांट तथा माप एवं पाषाण उपकरण है। यहाँ तीन युग्मित समाधि के भी उदाहरण मिले हैं। स्त्री-पुरुष शवाधान के साक्ष्य भी लोथल से ही मिले है। लोथल का शाब्दिक अर्थ 'मृतकों का घाव' होता है जो कभी कुम्हारों का लोकप्रिय गांव हुआ करता था। यह उन लोगों द्वारा बसाया गया था जो मिट्टी के (आज के टेराकोटा के समान) बर्तन बनाते थे तथा साबरमती नदी के किनारे पर रहा करते थे।
लोथल गुजरात के अहमदाबाद में स्थित है। यह एक तटीय शहर था (सिंधु घाटी सभ्यता के तीन महत्वपूर्ण तटीय शहर लोथल, सुकतागेंडोर और बालाकोट हैं)।
शहर को छह खंडों में विभाजित किया गया था और प्रत्येक खंड को कच्ची ईंटों के एक विस्तृत मंच पर बनाया गया था। घरों में प्रवेश मुख्य सड़क पर था जबकि सिंधु घाटी सभ्यता के अन्य स्थलों में प्रवेश द्वार पीछे से था। लोथल के महत्वपूर्ण खोजों में एक कृत्रिम बंदरगाह, चावल की भूसी {चावल की भूसी केवल लोथल और रंगपुर में पाई गई है}, मनका बनाने का कारखाना आदि शामिल हैं।माना जाता है कि लोथल का मेसोपोटामिया के साथ सीधा समुद्री व्यापार संबंध था क्योंकि वहां से एक ईरानी मुहर मिली थी।


सुतकागेंडोर :- सुत्कागेंडोर पाकिस्तान के वर्तमान बलूचिस्तान प्रांत में ईरान सीमा पर स्थित सिंधु घाटी सभ्यता का एक पुरातात्विक स्थल है। इसे सिंधु घाटी सभ्यता का सबसे पश्चिमी स्थल माना जाता है। गुजरात के कच्छ ज़िले में स्थित सुरकोतड़ा की खोज 1964 में जगपति जोशी ने किया था। यहाँ से नियमित आवास के साक्ष्य मिले हैं। एक ही रक्षा प्राचीर से घिरा हुआ एक सैन्धव कालीन नगर अपनी कई विशेषताओं के लिए मशहूर है। इसके दुर्ग में दक्षिण और उत्तर में एक-एक दरवाजे हैं।  सुतकागेंडोर ईरान सीमा के पास दश्त नदी के तट पर अरब सागर के तट से लगभग 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित था। यह लोथल और बालाकोट (पाकिस्तान में) के साथ एक महत्वपूर्ण तटीय शहर था और इसे सिंधु घाटी सभ्यता की पश्चिमी सीमा माना जाता है। यह मूल रूप से एक बंदरगाह था और बाद में तटीय उत्थान के कारण समुद्र से कट गया था। सुतकागेंडोर के बेबीलोन के साथ व्यापारिक संबंध थे।
रोपड़ :-यहाँ पर हड़प्पा पूर्व एवं हड़प्पाकालीन संस्कृतियो के अवशेष मिले है। इस स्थल की खुदाई 1953-56 में 'यज्ञ दत्त शर्मा' के द्वारा की गई थी। यहाँ प्राप्त मिट्टी के बर्तन, आभूषण चर्ट, फलग एवं तांबे की कुल्हाड़ी महत्त्वपूर्ण है। रोपङ से मिट्टी के बर्तन, आभूषण चर्ट, फलग एवं तांबे की कुल्हाड़ी प्राप्त हुई । यहाँ पर मिले मकानों के अवशेषों से लगता है कि यहाँ के मकान पत्थर एवं मिट्टी से बनाये गये थे। यहाँ शवों को अण्डाकार गढ्ढों में दफनाया जाता था। यह भारत का ऐसा सैन्धव स्थल है जहां स्वतंत्रा प्राप्ति के पश्चात सबसे पहले उत्खनन हुआ था। रोपण की खोज 1950 ईस्वी में बी बी लाल ने किया था ।

चन्हूदड़ो :-चन्हुदड़ो की पहली बार खुदाई मार्च 1930 में एन॰ गोपाल मजुमदार ने करवाई और उसके बाद 1935-36 में अमेरीकी स्कूल ऑफ़ इंडिक एंड इरानियन तथा म्यूज़ियम ऑफ़ फाइन आर्ट्स, बोस्टन के दल ने अर्नेस्ट जॉन हेनरी मैके के नेतृत्व में करवाई। यहां से एक ईट पर बिल्ली का पीछा करते हुए कुत्ते के पंजे के निशान भी मिले हैं । चन्हु-दारो सिंधु घाटी सभ्यता से संबंधित एक पुरातात्विक स्थल है । यह स्थल सिंध, पाकिस्तान में मोहनजोदड़ो से 130 किलोमीटर (81 मील) दक्षिण में स्थित है। यह समझौता 4000 और 1700 ईसा पूर्व के बीच बसा हुआ था, और इसे कार्नेलियन मोतियों के निर्माण का केंद्र माना जाता है।




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